For the devotees of Shri Shirdi Sai Baba, it would be inspiring to learn about the life and deeds of ‘Swami Samarth’. A comparative picturisation of the lives of these two great Saints, i.e. Swami Samarth and Shri Sai Baba of Shirdi would establish a surprising amount of commonness in their lives and deeds which includes their methods of teaching, the universality of their approach and the miracles they performed. Even a critical approach by a non-conformist would ultimately lead to the assertion that the over-all role of these two spiritual masters during the second half of the nineteenth century was similar, if not same. One, who is capable of making finer spiritual analysis, would be faced with a bewildering reality.
श्रीस्वामी समर्थ महाराज का जन्म सन् 1275 के आसपास हुआ था। स्वामी जी को महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में गंगापुर के स्वामी ‘नृसिंह सरस्वती’ के नाम से जाना जाता है तो वहीं कुछ जगहों पर उन्हें ‘चंचल भारती’ और ‘दिगम्बर स्वामी’ के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि पहले स्वामी नृसिंह के रूप में उन्होंने अपने भक्तों को ज्ञान दिया। पूर्व स्वरूप में अलग-अलग समय पर उन्होंने लगभग 400 वर्षों तक तपस्या की। 1458 में नृसिंह सरस्वती श्री शैल्य यात्रा के कारण कर्दली वन में अदृश्य हुए।
इसी वन में वह 300 वर्ष प्रगाढ़ समाधि अवस्था में थे। तभी उनके दिव्य शरीर के चारों ओर चींटियों ने भयंकर बांबी निर्माण किया। वह चलित दुनिया से दूर हो गए थे। एक दिन एक लकड़हारे की कुल्हाड़ी गलती से बांबी पर गिर गई जब उसने कुल्हाड़ी उठाई तो उसे खून के धब्बे दिखाई दिए उसने वहां की झाड़ी व बांबियों की सफाई की तो देखा की एक बुजुर्ग योगी साधना में लीन थे। घबराकर वह योगीराज के चरणों पर गिर पड़ा और ध्यान भंग करने की क्षमा मांगने लगा। स्वामी जी ने आंखें खोलीं और उससे कहा कि तुम्हारी कोई गलती नहीं है, यह मुझे फिर से दुनिया में जाकर अपनी सेवाएं देने का दैवीय आदेश हैं।
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